मिल रहा है तो ले लो. नहीं मिल रहा तो 'छीन' लो. अपना ही है. खासकर 'खाना'... ऐसा ही समझ लो.
ये सोच आजकल आम हो चली है. पिछले दिनों एक जगह एक आयोजन हुआ. शादी ही समझ लो.
बड़े स्तर पर थी, ज़ाहिर है सभी काम में लगे हुए थे. या कुछ हद तक, 'कुछ' तो लगे हुए थे, ऐसा ही समझ लोसब ठीक ठाक रहा. पूरी तरह नहीं लेकिन तो भी चल गया, 'निपट' गया, ऐसा समझ लो.
रात को खाने की बारी आई. सबकी तो नहीं आई, लेकिन उनका क्या है... 'काफी' की आ गयी ऐसा समझ लो.
वेज, नॉन-वेज, चाय-कॉफ़ी-ठंडा सभी कुछ था. पर्याप्त मात्र में. कुछ को खाना ‘जमा’ नहीं, लेकिन अधिकतर को ‘चल’ गया, और जिन्होंने खाया,
उन्होंने खाया भी भरपूर, ऐसा समझ लो. देर रात को समपान के करीब आते-आते एक 'शुरुआत' भी हुई. होती तो हर बार है, लेकिन मान लो कि ऐसा नहीं है और पहली बार हुआ... तो ऐसा ही समझ लो.
आयोजकों ने ही सर्वप्रथम खुद के परिवार के लिए 'टिफिन' पैक करने का शुभारम्भ किया. घर पर बनाने की मेहनत बची और ऑर्डर करने का शुल्क बचा. मुफ्त का खाना कहीं का भी हो, होटल से भी स्वादिष्ट होता है, ऐसा ही समझ लो.
उनकी देखादेखी फिर लगी लाइन उन सभी की जो भरपूर खा चुके थे. 'सपरिवार'. जिन्हें आमंत्रण नहीं था उनके सहित. लेकिन चलता है, कौन देख रहा है... तो आँख बंद कर... ऐसा ही समझ लो.
गुलाब जामुन डब्बे में 'लुढ़क' गए, पनीर और नान को भी 'समेट' लिया और भर लिया पहले से अपने साथ लाए टिफिन में. फिर पता चला एक ‘आइटम’ तो दबोचने से चूक गए तो प
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