
बड़े-बड़े ज़ख्म आज हम यूँ ही सह लेते हैं
एक वक़्त था जब छोटी सी चोट पर भी मरहम माँ से लगवाया करते थे
जब ग़मों के बादल टूट के बरसते हैं
इस अनजान शहर में जब कोई अपना नहीं मिलता
जब खुद को भीड़ में भी अकेला पाता हूँ
जब आँखों के सामने अंधेरा छा जाता है
माँ तेरी बहुत याद आती है
पहले आता नही था खाना बनाना
अब हर सुबह मैं खुद बनाता हूँ
पर जब भी मैं खाने बैठता हूँ
पुरानी यादें फिर ताजा हो जाती है
मैं फिर से अपने बचपन में चला जाता हूँ
कैसे तू मुझे अपने हाथों से खाना खिलाती थी
माँ तेरी याद रोज सताती है
माँ तेरी बहुत याद आती है
इस अंजान शहर में खो सा गया हूँ
दस बाय बारह के कमरे में सिमट के रह गया हूँ
देर रात जब घर आता हूँ फिर दर्द के मारे जब सर फटने लगता है
जब ठंडी पट्टी सर पर रखता हूँ
तब, तेरे आँचल तले सर रखने को जी करता है
माँ तेरे आँचल की खुशबु रुक-रुक कर रुलाती है
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