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बुद्धिनाथ मिश्र का एक गीत है:
'एक बार फिर जाल फेंक रे मछेरे
जाने किस मछली मे फिर फसने की चाह हो'
तो अजीब लगता था।
आज जब अपने पिजरे से बाहर बैठी लव बर्ड को वापस डालने की कोशिश की तो उसने जैसे सर झुका कर स्वीकार कर लिया।पर मुझे बहुत बुरा लगा।
आजाद परिन्दों का पिजरे की आदत हो जाना अच्छी बात नहीं है।
उन्हें कौन EMI भरनी है।
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