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थक गया हूँ मैं कितना एक ज़माने से
शायद ज़िन्दगी मान जाए तुझे मानाने से
पैरों के शूल अब आँखों में भी चुभे
में लड़खड़ाया मीलों एक ठोकर खाने से
अक्सर टूटा हुआ इंसान टूटा नहीं लगता
बस डरता है शाम को वापस घर जाने से
ज़ख्म जो भी मिले सब मीठे मिले
दर्द मिला तो अपनों के मरहम लगाने से
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