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अपनों का दामन हाथ से फिसल रहा है,
तन्हाइयों का अंधेरा उसे निगल रहा है...
दुनिया की ठोकरें खाकर वो लुढ़क रहा है,
सब से नजरें चुराकर अकेले तड़प रहा है...
धोखे और बेवफाई की आग में जल रहा है,
दिल में उठते जज्बातों को वो कुचल रहा है...
दूसरों की खातिर सरे-बाजार वो बिक रहा है,
घायल मन से खून के आँसू अब रिस रहा है...
जिन्दगी की भाग-दौड़ में बस पिस रहा है,
कलम की तरह खुद को रोज घिस रहा है...
जख्मों का दर्द उसके चेहरे पर झलक रहा है,
लबालब भरे जाम की तरह वो छलक रहा है...
पतझड़ के सूखे पत्तों की तरह रंग बदल रहा है,
जलती हुई मोमबत्ती की तरह वो पिघल रहा है...
गिरते काँच की तरह टूट कर वो बिखर रहा है,
बीतते वक्त की तरह पल-पल वो गुजर रहा है...
~ अम्बुज गर्ग
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