
मुक्कमल इश्क करना था, दिल से दिल लगाकर,
इज़हार तो जानते हो, जब मर्जी कह जाते।
इज़हार तो मालूम है, पर इश्क की सजा नहीं जानते।
जुदाई की पीड़ा कहीं ना कहीं, नजर ही आती है।
साथ सफर करना था, कदम से कदम मिलाकर,
मंज़िल तो जानते हो, जब मर्जी जुड़ जाते।
मंज़िल तो मालूम है, पर मंजिल की राह नहीं जानते।
सफर की लंबी राह अकेले भी, गुजर ही जाती है।
महफ़िल में रंग भरना था, जाम से जाम टकराकर,
दोस्ती तो जानते हो, जब मर्जी कर जाते।
दोस्ती तो मालूम है, पर दोस्ती की कदर नहीं जानते।
गुरूर की चढ़ी शराब देर-सवेर, उतर ही जाती है।
मौत का सामना करना था, नजर से नजर मिलाकर,
लड़ना तो जानते हो, जब मर्जी भिड़ जाते।
लड़ना तो मालूम है, पर लड़ने की वजह नहीं जानते।
ज़िन्दगी की लड़ी टूट कर आखिर, बिखर ही जाती है।
अवसाद से उभरना था, अतीत के गम भुलाकर,
इलाज तो जानते हो, जब मर्जी दवा खा जाते।
इलाज तो मालूम है, पर दवा का असर नहीं जानते।
बीमार की हालत खुद-ब-खुद, सुधर ही जाती है।
मझधार से निकलना था, लहरों पे काबू पाकर,
तैरना तो जानते हो, जब मर्जी पार पा जाते।
तैरना तो मालूम है, पर समंदर की थाह नहीं जानते।
तूफान में उठती लहर कभी ना कभी, ठहर ही जाती है।
~ अम्बुज गर्ग
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