
Share0 Bookmarks 29 Reads0 Likes
यूं ही मेरे ख़्यालों में तुम,
बिन कहे चली आती हो,
इतना तो बताओ ऐ काल्पनिक साथी,
तुम क्या मेरी कहलाती हो,
तुम शामिल मेरे ख़्यालों मे हो,
एक सौगात है ये मेरे लिए,
समझ से परे ये रिश्ता है कैसा,
ना मांग भरी,ना फेरे लिए,
मेरे जीवन का तुम एक ऐसा,
ख़ुशनुमा एहसास हो,
वास्तविक तुम्हारा कोई वजूद नहीं,
पर हर पल तुम मेरे पास हो,
ज़्यादा कुछ तुम कहती नहीं,
बस मंद-मंद मुस्काती हो,
जीवन नाम है आशाओं का,
बस हर पल यही सिखाती हो,
किस दुनिया में मिलती है ये,
जो मीठी तुम्हारी मुस्कान है,
काल्पनिक छवि से ये वास्तविक जुड़ाव,
देख के दिल हैरान है।
कवि-अंबर श्रीवास्तव।
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments