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सत्य-न्याय का शवदाह सम्पूर्ण,
असहाय, मजबूर, क्षत-विक्षत लोकतंत्र
करबद्ध नमन कल तक, आतंक गर्जित स्वर
अब काहे की जनता, और काहे का जनतंत्र।
हाँ कल तक, उफनाई गागर जोड़-जोड़ कर बूंद
आज हुआ असीम नीरनिधि, और बूंद रह गई बूंद
कृतघ्नता का नंगा नाँच किया, सत्ता के मतवालों ने
गाँधी का सपना तोड़ दिया, बाबर के रखवालों ने।
हाँ कल तक, षड्यंत्र विनय का अतिशय अनूप
आज, प्रतिक्षण परवर्तित विकट रूप-स्वरूप
बुझी आस की लौ, हाहाकार आतंक-गुंजित मुनादी
शर्म-विभोर, लज्जित सर, बड़ी भयावह यह आजादी ।
हाँ कल तक, स्वर्ण मृग प्रलोभन अति-विचित्र
आज, निराधार मृगतृष्णा रचित चल-चित्र
किन्तु अब राम-राम रह गया, अधर पर शेष
संत पीताम्बर फेंक, कुटी में घुस आया लंकेश।
फासीवाद तानाशाही का क्या पुनः दौर ?
महिमामंडित अधर्म - निडर - स्वतंत्र,
एक सदी से दुर्लभ सिंहासन आया हाथ
अब काहे की जनता, और काहे का जनतंत्र ।
सुनो , जन का दारुण अश्रव्य हृदय-क्रंदन
अपरिमेय, अद्वितीय, अभिशापित, मन-मंथन
कृषक, मजदूर, दलित, बेरोजगार की अंतः पीड़ा
तुम समझ रहे अब तक मात्र, जिनको क्रीड़ा ।
सुनो, मूक जनता का स्पष्ट स्फुरित स्वर
शुष्क कंठ, नीरस वाणी के शब्द; त्वरित ज्वर
आशा का लव-लेश मात्र तुम ही थे शेष
प्रतिफल में छल या मृगतृष्णा रचित परिवेश।
सुनो, जन नायक, तथाकथित लोकतंत्र हितकारी
तथाकथित जन सेवक, अग्रणी अधिकारी
सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय का साक्षी केवल एक
समय शेष है, इतिहास करेगा भागी का अभिषेक ।
असहाय, मजबूर, क्षत-विक्षत लोकतंत्र
करबद्ध नमन कल तक, आतंक गर्जित स्वर
अब काहे की जनता, और काहे का जनतंत्र।
हाँ कल तक, उफनाई गागर जोड़-जोड़ कर बूंद
आज हुआ असीम नीरनिधि, और बूंद रह गई बूंद
कृतघ्नता का नंगा नाँच किया, सत्ता के मतवालों ने
गाँधी का सपना तोड़ दिया, बाबर के रखवालों ने।
हाँ कल तक, षड्यंत्र विनय का अतिशय अनूप
आज, प्रतिक्षण परवर्तित विकट रूप-स्वरूप
बुझी आस की लौ, हाहाकार आतंक-गुंजित मुनादी
शर्म-विभोर, लज्जित सर, बड़ी भयावह यह आजादी ।
हाँ कल तक, स्वर्ण मृग प्रलोभन अति-विचित्र
आज, निराधार मृगतृष्णा रचित चल-चित्र
किन्तु अब राम-राम रह गया, अधर पर शेष
संत पीताम्बर फेंक, कुटी में घुस आया लंकेश।
फासीवाद तानाशाही का क्या पुनः दौर ?
महिमामंडित अधर्म - निडर - स्वतंत्र,
एक सदी से दुर्लभ सिंहासन आया हाथ
अब काहे की जनता, और काहे का जनतंत्र ।
सुनो , जन का दारुण अश्रव्य हृदय-क्रंदन
अपरिमेय, अद्वितीय, अभिशापित, मन-मंथन
कृषक, मजदूर, दलित, बेरोजगार की अंतः पीड़ा
तुम समझ रहे अब तक मात्र, जिनको क्रीड़ा ।
सुनो, मूक जनता का स्पष्ट स्फुरित स्वर
शुष्क कंठ, नीरस वाणी के शब्द; त्वरित ज्वर
आशा का लव-लेश मात्र तुम ही थे शेष
प्रतिफल में छल या मृगतृष्णा रचित परिवेश।
सुनो, जन नायक, तथाकथित लोकतंत्र हितकारी
तथाकथित जन सेवक, अग्रणी अधिकारी
सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय का साक्षी केवल एक
समय शेष है, इतिहास करेगा भागी का अभिषेक ।
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