
एक जीवन मे नारी का तीन जन्म होता है
लेकिन हर जनम मे उसका कर्म अलग होता है
पहला रूप है पुत्री का, पिता के घर वो आती है
संग में अपने मात-पिता का स्वाभिमान भी लाती है
यहाँ कर्म हैं मात-पिता की सेवा निशदिन करते रहना
अपने घर की मर्यादा के, सीमाओं के अंदर रहना
लेकिन उसके सेवा भाव का, कोई मोल नहीं मिलता
धन पराया बताकर उसको, धन पिता का नही मिलता
दूसरा रूप है पत्नी का, जो ब्याह पति घर आती है
उसपर अपना पूरा जीवन, नि:स्वार्थ होकर लुटाती है
अपना घर समझ कर जिसपर वो वारी-वारी जाती है
उसी घर में गैरों जैसा, व्यवहार हमेशा पाती है
बिना पति के पूरे घर में, कोई ना उसका अपना है
मगर पति से अपनापन भी, उसका झुठा सपना है
रूप बड़ा है तीजा सबसे, ये सबसे महान है
हर नारी को देखो लेकिन, ना मिलता ये सम्मान है
माँ बनने के खातिर कितनी, सहती पीड़ा अपार है
पर बचो के हंसी के आगे, ये सबके सब बेकार है
पाल-पोष कर खीला पीला कर, जिनको करती तैयार है
उन्ही बच्चो को माता उनकी लगने लगती गवार है
इतना सबकुछ करके भी वो अपना हक ना जताती है
जो भी है सब परिवार है उसका यही बात दोहराती है
जन्म से लेकर मृत्यु तक बस उसका यही कहना है
बच्चें मेरे धन संपत्ति और सुहाग ही मेरा गहना है
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