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पुश्तैनी कर्ज़

Aman SinhaAman Sinha April 23, 2023
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चार रुपये लिए थे, मेरे दादा ने कर्ज़ में

कल तक बाबा चुका रहे थे, ब्याज उसका फर्ज़ में


रकम बढ़ी फिर किश्त की, हर साल के अंत में

मूलधन खड़ा है अब भी, ब्याज दर के द्वंद में


चार बीघा ज़मीन थी, अपना खेत खलिहान था

हँसता खेलता घर हमारा, स्वर्ग के समान था


बाढ़ आयी सब तबाह हुआ, बाबा की हिम्मत टूट गयी

कल तक जो खिली हुई थी, किस्मत जैसे रूठ गयी


साहूकार ने हांथ बढ़ाया, सहयोग के नाम पर

कब से नज़र जमा रखी थी, उसने हमारी मकान पर


फसल उजड़ी बैल मरे, सबकुछ बाढ़ के भेंट चढी

द्वार हमारे लेनदार की, लंबी सी कतार लगी


गहने बेचे माँ ने तन के, बर्तन बासन का दान लिया

दो बीघा ज़मीन को भी, कौड़ियों में नीलाम किया


बिन कागज के पैसे देकर, साहूकार ने एहसान किया

कई सालों में आखिर उसने, हमारा घर अपने नाम किया


दादा गुजरे बाबा गुजरे, मैं भी बूढ़ा होने को

मेरा बेटा बड़ा हुआ अब, कर्ज़ के बोझ को ढोने को









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