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ज़िम्मेदारी के बोझ ने कभी सोने ना दिया

चोट जितनी भी लगी हो मगर रोने न दिया

घर से दूर रहा मैं जिनकी हंसी के ख़ातिर

अपना जितना भी बनाया पर अपना होने न दिया


सुबह की धुप न देखी, चाँदनी छु न सका

गुज़रा दिन भी अंधेरे मे, उजाला ना देख सका

तलब थी चैन से सोने की किसी की बाहों मे

जब भी घर मैं लौटा, पनाह पा ना सका


दो ठिकानो के बीच ही बसर मैं करता रहा

सभी खुश थे इसी से मैं सब्र करता रहा

जला कर खून जो अपना रोटी कमाई थी

पेट सभी का भरा, मैं मगर आधा ही रहा

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