
नर हूँ ना मैं नारी हूँ, लिंग भेद पर भारी हूँ
पर समाज का हिस्सा हूँ मैं, और जीने का अधिकारी हूँ
जो है जैसा भी है रुप मेरा, मैंने ना कोई भेष धरा
अपने सांचें मे कसकर हीं, ईश्वर ने मेरा रुप गढ़ा
माँ के पेट से जन्म लिया, जब पिता ने मुझको गोद लिया
मेरी शीतल काया पर ही, शीतल मेरा नाम दिया
जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, सबसे अलग मैं खड़ा हुआ
सबसे हट कर पाया खुद को, अंजाने तन मे बंधा हुआ
दिन बीते काया बदली, मेरी खुद की आभा बदली
बदन मेरा गठीला था पर, मेरी हर एक अदा बदली
तब मैंने खुद को समझाया, दिल को अपने बहलाया
जानकर असली काया अपनी, मैं थोड़ा ना शर्माया
मर्द के जैसे मेरे बदन में, औरत कोई छुपी हुई थी
निखर गई अब चाल ढाल जो, मेरे अंदर दबी हुई थी
देखकर मेरी ऐसी हालत, माँ ने मुझको त्याग दिया
मैं ज़िंदा हूँ फिर भी लेकिन, मेरी चिता को आग दिया
मां ने जब ठुकराया था, पिता साथ निभाया था
पर समाज के तानो से, उसका भी मन घबराया था
सब कहते थे की श्राप हूँ मैं, उनके पुर्व जन्म का पाप हूँ मैं
देखकर उनको ये लगता था, जैसे उनका संताप हूँ मैं
जो थे मेरे संगी साथी, अब सब मुझसे कतराते थे
साथ मेरे जो खेले थे, वो दूर से हीं मुड़ जाते थे
मैं चौराहे पर मिलता हूँ, अब वहीं पर रहता हूँ
आती जाती सवारी को, बस आशीष बेचता रहता हूँ
पर इसमे मेरा दोष है क्या? मैंने तो ये तन ना मांगा था
जब उसने मन से स्त्री बनाया, तो तन भी स्त्री का देना था
मैं सच को ना ठुकराउंगा, तन से मन का हो जाउंगा
जो चाहे मुझसे नाता रक्खे, खुद से ग़ैर नही हो पाउंगा
नर से थोड़ा कम हूँ मैं नारी से थोड़ा ज्यादा हूँ
दोनों का है हिस्सा मुझमे मैं दो नो आधा आधा हूँ
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