
अक्सर मैंने देखा उसको खुद से हीं बातें करते
कभी-कभी बिना कारण हीं खुद में हंसते खुद में रोते
कई दफा तो काटी उसने रातें यूं हीं जाग जाग के
कभी किसी पर अटक गई जो पलकें उसकी बिना झपके
बैठे-बैठे खो जाती है वो अपनी अंजानी दुनिया में
कितने भाव उभर आते हैं उसकी थकीं आँख की डिबिया में
कोई उसको ताड़ रहा है, क्युं ऐसा उसको लगता है
कानों में कुछ बोल गया क्या, जब कोई निकट से जाता है
अपनी हीं परछाई उसको किसी और की आभा लगती है
कभी कहीं दर्पण जो देखे किसी और की छाया दिखती है
लगता हैं कोई बहुत दूर से उसका नाम पुकार रहा
झौंका बनकर कोई हमेशा, उसके तन को सहला रहा
सच से भागे अँधियारे में, तो सच को वो पाये कैसे
अपने भ्रम में वो घुट-घुट कर खुदको फिर बचाए कैसे
रोग लगा ये मन को कैसे, अब तक उसको ज्ञान नहीं
किसने उसकी तंद्रा तोडी, कुछ भी उसको ध्यान नहीं
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