मन का डर's image
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काँप उठता है बदन और धड़कने बढ़ जाती है

शब्द अटकते है जुबां पर साँसे भी थम जाती है

लाल हो जाती है आंखें भौह भी तन जाती है

सैकड़ो ख्याल मन को एक क्षण में घेरे जाती है


खून बेअदबी से तन में फिर बेधड़क है भागता

नींद से आँखे भरी पर रात भर है जागता

मन किसी भी काम में फिर कहीं लगता नहीं

अपने हीं विचार पर ज़ोर तब चलता नहीं


गर्मियों के दिन मे भी ये जिस्म ठंडा हो जाता है

दिखता तो है ज़िंदा लेकिन जीते-जी मर जाता है

बेखयाली बदहवासी उसपर सिहरता बदन

तन से वो जगता दिखे है सो गया है उसका मन


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