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घरेलू हिंसा

Aman SinhaAman Sinha April 8, 2022
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हम दोनों ही संग बैठे थे, हम एक दूजे से ऐंठे थे

मुँह ना कोई खोल रहा, आँखों-आँखों से बोल रहा


बात ज़रा सी यही रही, मेज़ पर प्याली पड़ी रही

कौन उठाएगा उसको इसी बात पर अपनी ठनी रही


पहले तो प्यार से समझाया, बातों से अपने बहलाया

दाल जो उसकी गली नहीं, फिर बड़ी ज़ोर से चिल्लाया


अब बातें चीख में बदल गयी, बेसुध फिर अपनी अकल हुई

एक दूजे के पूर्वजों तक फिर आरोपों की लहर गयी


मैं जानू तेरे हर काम को, निकम्मों के खानदान को

जो अपने तन को तकलीफ ना दे, तुम जैसे हर इंसान को


तेरे भी घर की मर्यादा, मैं जानू ना कोई सीधा सादा

संस्कार ना तुझको दे पाए, लीचर का है तू शाहज़ादा


बात बढ़ी और खूब चली, बेहयाई की एक होड़ चली

कौन कितना नीचा ज्यादा है, ये समझाने की दौड़ चली


उसने अपना सीना ताना, जैसे मुझको दुर्बल जाना

सोच यहीं पर फिसल गयी, मैंने न उसको पहचाना


हाथों को अपने खोल दिया, फिर उसने हमला बोल दिया

मेरे दिल के ज़ज़्बातों को, अपने अहम संग तोल दिया


प्याली अभी तक मेज़ पर थी, जैसे वो किसी सेज़ पर थी

फैली थी जीतनी भी गंद वहाँ, सारी मक्खी अब मौज़ में थी


फिर मेरा सर यूं घूम गया, पैर ज़मीन से उखड गया

आँखे जो मैंने खोली तो, वहम अहम का टूट गया


मैं “गिरा” था लेकिन वो गिरी नहीं, अपने जगह से हिली नहीं

सर मेरा जैसे के घूम रहा, पर उसकी पलकें गिरी नहीं 


बीत गए कुछ घंटे चार, हुई लड़ाई बारम्बार

एक इंच भी प्याली हटी नहीं, आँखे उससे होती चार


एक आँख में काल घेरा था, लाल पूरा मेरा चेहरा था

होंठ कहीं से कटे हुए, खून फर्श में फैला था


फिर खुद को मैंने समझाया, बेलन को भी खुद हीं उठाया

उठा कर प्याली रसोई में, फिर मैंने खुद हीं पहुँचाया


सब कहते पुरुष ही दोषी है, कलह उसी से होती है 

कोई अंदर तक ना झांंक सका, क्या उसकी विडंबना होती है 


कहकर भी ना कह पाता है, अपनी लाज बचाता है

समाज पुरुष का होकर भी, उससे न्याय कहां कर पाता है  

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