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तू उगता सा सूरज, मैं ढलता सितारा
तेरी एक झलक से मैं छुप जाऊँ सारा
तू गहरा सा सागर, मैं छिछलाता पानी
तू सर्वगुण सम्पन्न मैं निर्गुण अभिमानी
तू दीपक के जैसा मैं हूँ एक अंधेरा
तू निराकार रचयिता, मैं अंकुर हूँ तेरा
तू पर्वत सा ऊंचा, जो नभ को भी चूमे
मैं खाई के जैसा धरा भी ना चूमे
तू हल्का पवन सा, सभी में बसा है
मैं उत्सर्जन सा कोई कुछ भी ना बचा है
तू नि:स्वार्थ दानी, मैं कोई पाखंडी
तुझे ज्ञान सारा मैं जैसे कोई अज्ञानी
तू रास्ता सरल सा मैं छोटी पगडंडी
ना तुझमें अहम हैं, पर मैं हूँ घमंडी
तू अंजान सा है सभी छल कपट से
पर मेरी है यारी इन सारे गरल से
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