चार दिन भी हुए नहीं ब्याह के उसको आए हुए
उसके नाम की चर्चा में हैं मनचले बौहराये हुए
बस्ती में चर्चा है काफी उसके लम्बे बालों की
लोग तारीफें कर रहे हैं उसके गोरे गालों की
पति प्रेम है उसका सच्चा, तन से है वो थोड़ा कच्चा
प्यास बदन की बुझा ना पाए, है अकल से पूरा बच्चा
तन की प्यास बुझाने को वो दिल ही दिल में व्याकुल है
उसके तन को पाने को गली के लुच्चे भी आतुर है
मांग भरी है उसकी लेकिन मांग कहाँ भर पाती है
अपने दिल का दुखड़ा अपने भावों से बतलाती है
चूड़ी, कंगन, मेहंदी ये सब बस श्रृंगार के साधन है
तन तो साफ़ है उसका लेकिन मन ना उसका पावन है
अपने कजरारी आँखों को जब भी वो मटकाती है
नुक्कड़ पर दीवानों की फिर भीड़ जमा हो जाती है
रोज सवेरे अपने छत पर कपडे वो सुखाती है
अपने तन के कपड़ो को वो खिड़की पर धर जाती है
ताम-झाम में समय बिताती देवर को ललचाती है
लाली, काजल, बिंदी, पायल सब उसको दिखलाती है
पति चाकरी गया नहीं की लीला में लग जाती है
अपने प्रेमी को फिर अपने शयन कक्ष तक लाती है
जहाँ न कोई सीमा मन की ना तन की मर्यादा है
“काम” का मेला वहाँ पर हरदम घर के मान से ज्यादा है
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