
शत-शत प्रणाम है उन वीरों को, जिन्होने सबकुछ अपना वार दिया
देकर बलिदान अपने प्राणों की, हमें विजय दिवस का उपहार दिया
सुबह सौम्य थी शांत दोपहरी शाम भी सुहानी थी
रात के सन्नाटे में पवन की बहती खूब रवानी थी
मौसम बदला, ओले बरसे बर्फ की चादर फ़ैल गयी
चिंताओं की कुछ रेखाएं चेहरे पर जैसे छोड़ गयी
पिछले कुछ समय से मौसम का, अपना अज़ब रुआब था
कभी बर्फ तो कभी फव्वारे, क़हर बेहिसाब था
दो हप्तों से ऊपरी टुकड़ी से कुछ बात नही हो पाई थी
दो दिन पहले शायद उनकी अंतिम चिट्ठी आई थी
बाकी ठीक था वैसे तो पर कुछ शब्द ही भारी थे
“बन्दर, चोटी, छत” और शायद एक शब्द “तैयारी” थे
लिखने वाले ने इन शब्दों को बार बार दोहराया था
शायद उसने हमको अपने इशारो में कुछ समझाया था
चिट्ठी मिलते ही अफसर ने सारा काम छोड़ दिया
शब्दों के मायने ढुंढ़ने में सारा अपना ज़ोर दिया
इतने ठण्ड में चोटी पर तो हाँर-मांस जम जाते हैं
कैसे बन्दर है जो ऊपर मस्ती करने आते हैं ?
क्या है राज़ चोटी पर और काहे की तैयारी है ?
पूरी बात समझने की इस बार हमारी पारी है ?
कई बार पढ़ा चिट्ठी को हर शब्दों पर गौर किया
सोच समझ कर उसने फिर कुछ करने का ठौर लिया
चूक हुई है बहुत बड़ी उसने अब ये जाना था
लिखने वाले ने शायद दुश्मन को पहचाना था
जिस चौकी पर फौजी अपनी जान लुटाए रहता है
आज कोई शत्रु उसपर ही घात लगाए बैठा है
खुदको तैयार करने को, इतना सा खत ही काफी था
दुश्मन को औकात दिखाने हर एक फौजी राज़ी था
जागो देश के वीर सपूतो भारत माँ ने आह्वान किया
एक बार फिर दुश्मन ने देश का है अपमान किया
लहू अब अंगार बनकर रग रग में है दौड़ रहा
शत्रु को न टिकने देंगे अब हर सैनिक बोल रहा
हम नहीं चाहते युद्ध कभी पर जो हमपर थोपा जाएगा
कसम है हमे मातृभूमि की वो अपनी मुँह की खाएगा
थाम बन्दुक चल पडे फौजी ऊँची नीची पहाड़ो पर
टूट पड़ने को आतुर थे वो दुश्मन के हथियारों पर
राह कठिन थी सीमा तक की बर्फ की चादर फैली थी
कहीं-कहीं पर चट्टानों की ऊँची ऊँची रैली थी
एक बार चला जो फौजी फिर रुकना ना हो पाएगा
चाहे राह जि
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