
ना राधा सी उदासी हूँ मैं, ना मीरा सी प्यासी हूँ
मैं रुक्मणी हूँ अपने श्याम की, मैं हीं उसकी अधिकारी हूँ
ना राधा सी रास रचाऊँ ना, मीरा सा विष पी पाऊँ
मैं अपने गिरधर को निशदिन, बस अपने आलिंगन मे पाऊँ
क्यूँ जानु मैं दर्द विरह का, क्यों काँटों से आंचल उलझाऊँ
मैं तो बस अपने मधुसूदन के, मधूर प्रेम में गोते खाऊँ
क्यूँ ना उसको वश में कर लूँ, स्नेह सदा अधरों पर धर लूँ
अपने प्रेम के करागृह में, मैं अपने कान्हा को रख लूँ
क्यों अपना घरबार त्याग कर, मैं अपना संसार त्यागकर
फिरती रहूँ घने वनों में, मोह माया प्रकाश त्यागकर
क्युं उसकी दासी बनकर, खुद मैं अपना स्तर गिराऊं
है प्रेम तो हम दोनो समान है, है हम दोनों एक स्तर पर
प्रेम कोई अपराध नहीं है, लज्जा की कोई बात नहीं है
प्रेम में इश्वर, मानव कैसा, प्रेम की कोई जात नहीं है
जितना देता ज्यादा पाता, फिर भी ना व्यापार कहाता
केशव की दृष्टि से देखो, जो डुबा इसमे पार हो जाता
कष्ट अगर है, विलास भी है, अपनेपन का आभास भी है
मोहन के मन को जो भाये, उसका प्रिय आहार भी है
पर सब कुछ है मेरी खातिर, तन भी मेरा और मन भी मेरा है
सबसे उसे बचा कर रक्खूं , जिनती भी नज़रों ने उसे घेरा है
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