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आख़िरी रात में इंसान क्या मांगे
हक़ की आवाज़ दब गई
मुसीबत सर पे चढ़ गई
मेहनत से मिट्टी का घर बना था
वो भी ऊंची इमारतों के नीचें धंस गई..
आख़िरी रात में इंसान क्या मांगे
जो छीन गई रातें वो देगा क्या
उससे कही बातें वो कहेगा क्या
पल पल का दर्द वो सहेगा क्या
हमारे सपनों को साकार करेगा क्या...
आख़िरी रात में इंसान क्या मांगे
जो बाकी
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