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तुम पागल हो झूठ नहीं बोलते हो,
मैं बोल लेता हूं देखो कितना अच्छा हूं।
सब-कुछ सही बोलकर तुमको मिलता क्या है,
जब सब बोलते ही हैं तो फिर भी तुमको क्या है।
सचको झुठ झुठ को सच बताकर जीते हैं लोग यहां,
तुम ढुढतें हो हर किसी में गांधी हरिश्चंद्र वो अब कहां।
सब सच सच ही हो नहीं होते कुछ कुछ मिला होता है,
सारें पर्दे सही जो सब-कुछ साफ ढक लें सिला होता है।
लेकिन उम्मीद की जा सकती हैं किताबों से दीवारों से।
अब तुम एक से जो भी करना आजमाइश नहीं हजारों से।
-आलोक रंजन
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