यशोधरा
1.जो पथ तुम कल छोड़ गये
वो पथ आज तक उदास हैं।
राह के बूढ़े बरगद को अब तक
तुम्हारे आने की आस है।
2.
प्रश्न सभी ये पूछते हैं मुझसे
तुम क्यों मुझे छोड़ गये
सारे बंधन बिन बताये तोड़ गये
मुझको घुटने को, इन प्रासाद की
ऊंची प्राचीरों में निपट अकेला छोड़ गये।
3.हृदय में मुरझाये कंवल पूछते हैं
वर्षों से उर में जलते दावानल पूछते हैं
तुम क्यों मुझे बिन कहे छोड़ गये
तुम क्यों यूं मुझसे मुख मोड़ गये ।
4.मैं किससे बांटू अपनी वेदनाएं
कैसे हों पूरी मेरी अधूरी इच्छाएं
हों कैसे पूरी तन में उभरी कामनाएं
किससे कहूं मैं भला अपनी विवशताएं।
5.तुम गये,है दुख ,है पीड़ा
पर है वेदना अधिक इस बात की
कि जाते हुए नहीं कहे
तुमने विदा के एक भी शब्द।
क्या इतना भी नहीं कर सकी थी
मैं अर्जित विश्वास तुम्हारा
कि तुम मुझे बतलाते
ये निर्णय अपने जाने का ।
6.तुम्हारे मन में तो चल रहे होगे
कितने दिनों से द्वन्द्व कितने
जिनकी परिणति थी
तुम्हारा इस तरह जाना ।
जाने से अधिक तुम्हारे
मुझे दुख इस बात का है कि
मैंने भी कहां तुम्हारे मन में चल रही
उथल पुथल को पहचाना।
दुख इस बात का भी है कि
तुमने मुझे अपने निर्णय को
जानने का अधिकारी भी न पाया
उसे बताने योग्य भी न जाना।
7.स्वयं पर विश्वास नहीं था तुम्हें
या पाते थे तुम,बाधा मुझको
अपने विचारों के,
गहन एकाकी क्षणों में
जूझ रहे थे जब तुम
अपने मन के अंतर्द्वन्दों से।
8.तुम तो इन प्राचीरों को लांघ
चुपके से,अकेले ही निकल गये
बिन कुछ कहे,निविड़ निर्जन वनों में
जीवन के गूढ़ प्रश्नो को सुलझाने।
पर मैं सुलझा ना पायी
अब तक,अपना उलझा जीवन।
मेरा मन भी हो चला है
जैसे कोई निर्जन निविड़ वन।
नहीं होता अब इसमें
किन्हीं भावनाओं का आगमन।
9.तुम उत्तरों को खोजने निकले हो
पर मैं अब तक, प्रश्नों पर ही अटकी हूं।
ये असत्य नहीं लेशमात्र भी,
यदि मैं तुमसे यह कहूं
मेरा जीवन ठहर सा गया है, और मैं
अब तक, उसी बीते पल में अटकीं हूं।
तुमने मुझे जहां, जैसे था छोड़ा
मैं अब तक वहीं ,वैसे ही रुकी हूं।
10.अब तक मिल नहीं पाए मुझे
मेरे एक भी प्रश्न के उत्तर।
प्रश्न सबसे बड़ा है यही
तुम कितनी आसानी से
बंधन सारे तोड़ गये
सबसे मुख मोड़ गये ।
चले गये स्वयं अकेले और
मुझे भी अकेला छोड़ गये।
11.मुड़कर तो तुमने कभी एकबार भी,
देखा ही नहीं, छूटे हुए उन पथों को।
सोचा भी कहां होगा कभी तुमने
कि है उन पथों पर,
टकटकी लगाए नयनों से प्रतीक्षारत
निहारता कोई बाट तुम्हारी।
12.पूछना कभी ये प्रश्न स्वयं से
अगर तुम बांटते पीड़ाएं
मन की अपने, मुझसे,
वेदनाएं अपनी मुझे बताते
क्या मैं समझ न पाती
क्या तुम मुझको फिर भी
अपने पथ की बाधा पाते ।
13.क्या पता मैं स्वयं ही तुम्हें,
कर देती बंधनमुक्त ।
तब तुम भी सहज मन
बिना किसी अपराध बोध के जाते।
तुम तो जाते ही बंधन मुक्त
मैं भी बंधन मुक्त हो जाती।
मैं भी जीती जीवन अपना
तब सहज भाव से
गर्वित ,उन्नत मस्तक ,ये सोचकर
कि मैं वो स्त्री हूं
जिसने कर दिया बंधन मुक्त
अपने सबसे प्रिय को
जिसके पथ थे मुक्ति पथ
जिसका लक्ष्य था
जीवन का अंतिम बोध।
14.तुम वेदनाएं अपनी
मुझको बतला भी सकते थे।
हृदय में उभरते प्रश्न
मुझको सुना भी सकते थे।
अपने जीवन का लक्ष्य
मुझे समझा भी सकते थे।
जो कुछ भी घुमड़ रहा था मन में
मुझे बता भी सकते थे।
खोलकर हृदय अपना सारा
मुझे दिखा भी सकते थे।
अगर सही अर्थों में समझते मुझको
साथ अपने मुझको ले भी सकते थे।
संभवतः जो ढूढ़ने निकले थे तुम
मैं भी पा सकती थी।
कुछ और नहीं तो अपना धर्म तो
सहगामी पथों पर निभा सकती थी।
15.सहधर्मिणी, सहगामिनी
ये शब्द रचे नहीं मैंने
पर मर्म इनका
मैं पूरी तरह जानती हूं।
तुम भले न खरे उतरे
मेरे प्रति अपने कर्तव्यों में,
पर मैं उतरती हूं पूरी खरी
तुम्हारे प्रति अपने कर्तव्यों में
बस इतना तो मैं
भलीभांति जानती हूं।
16.तुम ही धर्म अपना निभा न सके
जाते हुए भी मुझे बता न सके ।
दर्शनों को अपने एक बार के लिए ही
उस निशा मुझे जगा न सके।
17.सोचती हूं मैं बार-बार
हमारे संबंधों में क्या थे मेरे अधिकार।
क्या मैं नारी थी
इसीलिए तुम इतनी सरलता से
बिन कुछ कहे मुझे छोड़ गये
चुपचाप मुंह मोड़ गये।
18.तुम तो मुक्त हो गये सारे बंधनों से
मैं अब तक उन बंधनों में जकड़ी हूं।
तुम होगे कहीं नीरव निर्जन में ध्यान लगाए
मैं भोगती हूं हर दिन अपनी नीरव निशाएं।
19.अपना सूनापन,अपना एकाकीपन
अपनी पीडा़एं लेकर भटकती हूं मैं
कभी प्रासाद के गलियारों में,
कभी अपने सूने कक्ष के घोर अंधियारों में,
कभी खुले गगन नीचे, तारों की छांव में
धवल चांदनी के उजियारों में।
20.तुम जूझते होगे प्रश्नों से अपने
पर मैं करती हूं हर दिवस सामना
प्रश्न भरी कितनी ही दृष्टियों का
जो संभवतः पूछतीं हैं मुझसे यही,
ये कैसे हुआ यशोधरा
क्यों तुम सिद्धार्थ को
अपने यौवन जाल में उलझा न सकी
क्यों मोह बंधन भी तुम्हारे
पग उसके रोक सके ।
कुछ निर्मम दृष्टियां तो करती हैं
जैसे मुझ पर ही दोषारोपण,
कि जैसे मैं ही हूं
तुम्हारे जाने की अपराधी।
है कोई खोट मुझमें ही कोई
अवश्य मुझसे ही हुई है त्रुटि कोई
नहीं तो भला, जाता है यूं भी कोई
मध्य रात्रि छोड़कर सब राजपाट
सारी सुख सुविधाएं प्रासाद की।
22.मैने विगत स्मृतियों के ही सहारे
अपनी हर सूनी रात गुजारी है ।
हर दिन तुमको याद किया
हर दिन ही बाट तुम्हारी निहारी है।
23.नीरव निशाओं में हल्की सी आहट से भी होता है मेरे उर में कितना कंपन।
याद आते हैं मुझे तुम्हारे
प्रेम भरे स्पर्श और उनसे उभरे स्पंदन।
24.जानती यदि मैं, कहां हो तुम समाधिस्थ
तो आकर पूछती ,प्रश्न बस इतना
यदि ढूंढ़ने निकले थे तुम मुक्ति पथ
तो आते हुए मुझे भी मुक्त कर देते।
25.कह देते, यदि साहस था तुममें
यशोधरा जब मैं निकल रहा हूं
मुक्ति पथ की यात्रा पर तो भला
कैसे मैं बांध कर तुम्हें रख पाऊंगा।
26.पर तुममें तो
साहस ही नहीं था,
करने का सामना
मेरी प्रश्न भरी दृष्टियों का,
मेरे तीखे प्रश्नों का
जो कर देते तुम्हें असहज
इसीलिए तुम तो, बिन कुछ बोले
बिन कुछ कहे,
रात के गहन तम में
कर गये चुपके से प्रस्थान।
जाते हुए तुम, कर गये खंडित
मेरा जो तुम पर था विश्वास ।
27.एक झटके में, कितनी आसानी से
तुम सब कुछ तोड़ गये,सब छोड़ गये।
जूझने को इन सारे बंधनों से,
बस मुझे निपट अकेला छोड़ गये।
कर जाते ,यदि मुक्त तुम मुझे
जीवन मेरा भी सहज हो जाता।
तब मैं न जीती इतने वर्षों
तुम्हारे आने की झूठी आस लिए।
इतना दुख
इतनी वेदनाएं लिए ।
तब मैं भी
किसी और पथ जा सकती थी ।
जीवन अपना होकर सहज
बिना किसी
अंतहीन प्रतीक्षा के,
अकेले भी बिता सकती थी।
सुनकर तुम्हें आश्चर्य होगा
पर होती यदि इच्छा मेरी
किसी और को भी
अपना सकती थी।
कर जाते तुम
बस इतना मुक्त मुझे।
28.कोई नहीं बांटता अब मेरे सूनेपन को
ये जीवन अब जैसे-तैसे बीत रहा है।
सबने स्वीकारा है ,है यही नियति मेरी
हर दिन मन मेरा थोड़ा-थोड़ा रीत रहा है।
मैंने उर में अनगिनत प्रश्न लिए
हर दिन राह तुम्हारी निहारी है ।
तुम्हें लेशमात्र अनुमान भी न होगा
जीना ऐसा जीवन,बिन प्रीत,बिन प्रियतम
बस एक तुम्हारे आने की आस लिए
कितना कठिन कितना भारी है।
29.जब संबंध होंं,पर अर्थहीन हो जाएं
जब प्रतीक्षाएं लम्बी और अंतहीन हो जाएं
जब देह का बोझ ढोना हो दुश्कर
जब सारी कामनाएं कुम्हला जाएं
पूछो मत ऐसा जीवन जीना कैसा होता है
जब मृत्यु न आए समीप पर
सांसें जैसे जीवन विहीन हो जाएं।
30.जाते हो तुम किस पथ,क्या है ध्येय
इतना तो कम से कम बतलाते।
मैं भला कब बांधती तुम्हें बंधन में,
कब तुम मुझको अपने पथ में बाधा पाते।
31.कहां विस्मृत कर पायी मैं ,स्मृतियां
तुम्हारे साथ बिताई सब रातों की।
जो साथ बुने थे स्वप्न सुनहरे ,उनकी
जो अर्थहीन की थी उन सब बातों की।
32.अपने अकेले दुख की ही तो अब बात नहीं
प्रश्न राहुल के भी तो, अब कठिन हो चले हैं
पहले बहला देती थी मैं उसके भोले मन को
पर कैसे समझाऊं मैं अब उसके बढ़ते बचपन को।
33.दृष्टियां जो बेंधती थी
कल तक मुझको अपने प्रश्नों से
अब उसकी ओर भी उ
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