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एक कृशकाय वृद्ध मेघ
लेकर अल्पवृष्टि अपने अंतर में
भटकता धीरे धीरे गगन में
ऐसे बादल गतिहीन से, जैसे वृष्टि विहीन से ,
आस लगाए सूखी धरा के कितने भूखंड
कब मेघ से बूंदें झरेगीं
कब प्यास उनकी बुझेगीं ।
जलती ,सूखी ,प्यासी धरती की
प्यास कहां भला बुझती है
नभ में चमकती तड़ित से ,
नभ में ही इधर- उधर उड़ते, भटकते अम्बुदों से,
मात्र मेघों के मल्हार से।
प्यास धरा की मिटती तभी,
जब मिटा देते
अस्तित्व सम्पूर्ण अपना बादल कई,
प्यास धरा की
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