गहरी सी उदासी's image
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सब दिवस एक जैसे न हुए

जैसे चाहा वैसे न हुए।


भोर लाई

आशा की अनगिनत रश्मियां

पर संध्या आते -आते

जाने क्यों घिर आई

गहरी सी उदासी।


न जाने क्यों सांध्य की उदासी

फैल जाती है उन रात के सीनों पर

जब हम अकेले होते हैं

बेहद अकेले.

बस स्वयं के साथ

वो वक्त जब

पलकों की कोरें बेवजह नम हो जाती है

हम चाहते हैं उनके साथ होना

जिनके साथ हम हो सकते हैं

जो नहीं हैं हमारे पास

या उनके साथ

जिनके साथ हम चाहते हैं होना

जो नहीं हैं हमारे पास

जिनके नहीं हो सकते हम साथ


कुछ भी तो ऐसा नहीं है

दुनियावी दुख

सब कुछ सुखद ही लगता है

सब कुछ अच्छा ही दिखता है,

पर अंतर में जो छुपी हुई अकुलाहट है

पता नहीं कहां से निकलने की छटपटाहट है

कहां जाने की आकांक्षा है

किससे मिलने की चाह है

क्या-क्या कह देने का मन है

कितने अंतरद्वंद्वों

कितने अंतर्विरोधों

कितने विरोधाभासों

से भरे जीवन में स्वाभाविक है उदासी का उगना।


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