
जानता नहीं मैं
ढूढ़ते है किसको मेरे नयन
इन पथों पर टिकते नहीं एक जगह मेरे पांव
ठहरता ही नहीं एक जगह मेरा मन।
क्या है मेरे अंतर की धरा उर्वरा,
जहां भावों के न जाने कितने
बीज होते हैं अंकुरित
पल्लवित होते कितने गीतों के सुमन।
शब्दों में करता जो प्रतिबिंबित
मैं अनगिनत भावनाएं
कुछ सुख,कुछ दुख कुछ वेदनाएं
क्या कुछ कुछ झलक
उनमें अपनी हर कोई पाए ।
छुपकर न जाने क्यों
मैं आवरणों में रहता हूं
क्या पता किससे मैं बोलता हूं
किससे मैं क्या कहता हूं,
कौन मुझे सुनता है
कौन मुझसे कहता है,
कभी हो जाता वाचाल कितना,
कभी मौनओढ़ चुप क्यूं मैं रहता हूं।
करता व्यक्त मैं बस अपनी आपबीती
या कथा औरों की भी कहता हूं,
खेलता हूं मिथ्या खेल बस शब्दों का
या है सचमुच कुछ सत्यांश कथा में मेरी
है किसी से सचमुच कोई राग-अनुराग
या सब भावना प्रदर्शन
मात्र एक दिखावा है।
औरों को भी रखता मैं भुलावे में
देता स्वयं को भी भुलावा हूं,
या समस्त प्रयास मेरे
मात्र कल्पनाओं के तंतुओं से बुने,
असंभव स्वप्न
जिनके सहारे पलती
मेरी कुछ अतृप्त जी लेने की अधूरी अभिलाषा ।
नीरव07.06.2022
No posts
No posts
No posts
No posts
Comments