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सुनो.!
तुम्हीं से कह रहा
सुना है कभी,
झरने की आवाज,
पत्तों की खड़खड़ाहट,
पक्षियों की चहचहाहट,
सुनना कभी
ये भी कुछ कहते हैं
ऐसे सुनना
जैसे फिर न सुनना पड़े
डूब कर सुनना
उन तरंगों में
सुनना ऐसे जैसे
खो जाना स्वरों में
की वो तुमसे ही
कुछ कह रहे हों
हाँ, तुमसे हीं
तुम सुनोगे
उसकी वेदना
उसकी छटपटाहट
उसकी उद्विग्नता
की जैसे कहीं
स्वयं को समर्पित करने की
चाह भरी हो उसमें
उसके रोम-रोम
जैसे किसी की प्रतीक्षा
कर रहे हों
किसी का अंश उसमें
रह गया हो जैसे
कोई पुकारता जैसे
उसी अंतहीन तरंगों
के उद्गम स्थल को
ढूंढती कह रही हो,
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