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तेरे होने पे हम खुद को सजता संवरता हुआ देखते थे,
तेरे होंटों से निकले हुए लफ्ज़ में जान होता हुआ देखते थे,
उन दरीचों में हम तेरे होने की सरगम सुनाते थे सब एहल ए दिल को,
उन लगे पेड़ के सारे झूलों को हम तेरा होता हुआ देखते थे,
मुझ में पैवस्त रहते थे सब गम के पहलू खुशी के ठिकाने नहीं थे,
तेरे पाजेब की उन सदा से गमों को सहमता हुआ देखते थे,
तू नहीं जानती किस तरह से गुज़रते थे मिनटों के लम्हें,
तेरे छोड़े हुए लब के बोसे को हम कप पे मद्धम हुआ देखते थे,
तेरे माथे से लिपटे हुए हर शिकन को खमोशी से जो देखता था वो मैं था,
उन घने बादलों से घने गेसुओं को दुपट्टों में लिपटा हुआ देखते थे
#अखलाक_साहिर
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