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विधी न्याय संकल्प प्रलापित,
किंतु कैसा कल्प प्रकाशित?
दुर्योधन का राज चला है,
शकुनि पाशे को मचला है।
एकलव्य फिर हुआ उपेक्षित,
अंधे का साम्राज्य फला है।
जब पांचाली वस्त्र हरण हो,
अभिमन्यु के जैसा रण हो।
चक्रव्यूह कुचक्र रचा कर,
एक रथी का पुनः मरण हो।
धर्मराज पाशे के प्यासे,
लिप्त भोग के संचय में।
न्याय नीति का हुआ विस्मरण,
पड़े विदुर अति विस्मय में।
अधर्म हीं आज रीत है,
न्याय तराजू मुद्रा क्रीत है।
भीष्म सत्य का छद्म प्रवंचन,
द्रोण माणिक पर करे हैं नर्तन।
धृष्ट्र राष्ट्र तो है हीं अंधे,
कुटिलों के हीं चलते धंधे।
फिर भी अबतक आस वही है ,
हाँ तुझपर विश्वास वही है।
हम तेरे हीं दर पर जाते,
पर दुविधा में हम पड़ जाते।
क्योंकि पाप अनल्प बचा है,
ना कोई विकल्प बचा है।
नीति युक्त ना क्रियाकल्प है,
तिमिर घनेरा आपत्कल्प है।
दिग दिगंत पर अबला नारी,
नर पिशाच के हाथों हारी।
हास लिप्त हैं अत्याचारी,
दुःसंकल्प युक्त व्यभिचारी।
संशय तब संभावी होता,
निःसंदेह प्रभावी होता।
धर्मग्रंथ के अंकित वचनों,
का परिहास स्वभावी होता।
आखिर क्यों
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