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दुर्योधन ने अपने अनुभव पर आधारित जब इस सत्य का उद्घाटन किया कि अश्वत्थामा द्वारा लाए गए वो पांच कटे हुए नर मुंड पांडवों के नहीं है, तब अश्वत्थामा को ये समझने में देर नहीं लगी कि वो पाँच कटे हुए नरमुंड पांडवों के पुत्रों के हैं। इस तथ्य के उदघाटन होने पर एक पल को तो अश्वत्थामा घबड़ा जाता है, परंतु अगले ही क्षण उसे ये बात धीरे धीरे समझ में आने लगती है कि भूल उससे नहीं अपितु उन पांडवों से हुई थी जिन्होंने अश्वत्थामा जैसे प्रबल शत्रु को हल्के में ले लिया था। भले हीं अश्वत्थामा के द्वारा भूल चूक से पांडवों के स्थान पर उनके पुत्रों का वध उसके हाथों से हो गया था , लेकिन उसके लिए ये अनपेक्षित और अप्रत्याशित फल था जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। प्रस्तुत है मेरी कविता "दुर्योधन कब मिट पाया का इकतालिसवां भाग।
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मृदु मस्तक पांडव के कैसे,
इस भांति हो सकते हैं?
नहीं किसी योद्धासम दृष्टित्,
तरुण तुल्य हीं दीखते हैं।
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आसां ना संधान लक्ष्य हे,
सुनो शूर हे रजनी नाथ,
अरिशीर्ष ना हैं निश्चित हीं,
ले आए जो अपने साथ।
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संशय के वो क्षण थे कतिपय ,
कूत मात्र ना बिना आधार ,
स्वअनुभव प्रत्यक्ष आधारित,
उदित मात्र ना वहम विचार।
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दुर्योधन का कथन सत्य था,
वही तथ्य था सत्यापित।
शत्रु का ना हनन हुआ निज,
भाग्य अन्यतस्त्य स्थापित।
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