जो तुम चिर प्रतीक्षित सहचर मैं ये ज्ञात कराता हूँ,
हर्ष तुम्हे होगा निश्चय ही प्रियकर बात बताता हूँ।
तुमसे पहले तेरे शत्रु का शीश विच्छेदन कर धड से,
कटे मुंड अर्पित करता हूँ अधम शत्रु का निज कर से।
सुन मित्र की बातें दुर्योधन के मुख पे मुस्कान फली,
मनोवांछित सुनने को हीं किंचित उसमें थी जान बची।
कैसी भी थी काया उसकी कैसी भी वो जीर्ण बची ,
पर मन के अंतरतम में तो थोड़ी आशा क्षीण बची।
क्या कर सकता अश्वत्थामा कुरु कुंवर को ज्ञात रहा,
कैसे कैसे अस्त्र शस्त्र में द्रोण पुत्र निष्णात रहा।
स्मृति में याद आ रहा जब गुरु द्रोण का शीश कटा ,
धृष्टदयुम्न के हाथों ने था कैसा वो दुष्कर्म रचा।
जब शल्य के उर में छाई थी शंका भय और निराशा,
और कर्ण भी भाग चला था त्याग वीरता और आशा।
जब सूर्यपुत्र कृतवर्मा के समर क्षेत्र ना टिकते पाँव,
सेना सारी भाग चली ना दुर्योधन को दिखता ठांव।
द्रोणाचार्य के मर जाने पर कैसा वो नैराश्य मचा था,
कृपाचार्य भी भाग चले थे दुर्योधन भी भाग चला था।
जब कौरवों में मचा हुआ था घोर निराशा हाहाकार,
अश्वत्थामा पर लगा हुआ था शत्रु का करने संहार।
अति शक्ति संचय कर उसने तब निज हाथ बढ़ाय,
पाँच कटे हुए नर मस्तक थे निज हाथ दबाया।
पीपल के पत्तों जैसे थे सर सब फुट पड़ेथे वो,
वो पांडव के सर ना हो सकते ऐसे टूट पड़ थे जो ।
दुर्योधन के मन में क्षण को जो भी थोड़ीआस जगी,
मरने मरने को हतभागी पर किंचित थी श्वांस फली।
धुल धूसरित होने को थे स्वप्न दृश ज्यो दृश्य जगे ,
शंका के अंधियारे बादल आ आके थे फले फुले।
माना भीम नहीं था ऐसा कि मेरे मन को वो भाये ,
और नहीं खुद पे मैं उसके पड़न देता था साए।
माना उसकी मात्र उपस्थिति मन को मेरे जलाती थी,
देख देख ना सो पाता था दर्पोंन्नत जो छाती थी।
पर उसके तन के बल को भी मै जो थोड़ासा जानू ,
इतनी बार लड़ हूँ उससे कुछ तो मैं भी पहचानू ।
क्या भीम का सर भी ऐसे हो सकता इतना कोमल?
और पार्थ की शक्ति कैसे हो सकती ऐसे ओझल?
अश्वत्थामा मित्र तुम्हारी शक्ति अजय का ज्ञान मुझे,
जो कुछ तुम कर सकते हो उसका है अभिमान मुझे।
पर युद्धिष्ठिर और नकुल है वासुदेव के रक्षण में,
किस भांति तुम जीत गए जीवन के उनके भक्षण में?
तिमिर घोर अंधेरा छाया निश्चित कोई भूल हुई है,
निश्चित हीं किस्मत में मेरे धँसी हुई सी शूल हुई है।
फिर दीर्घ स्वांस लेकर दुर्योधन हौले से ये बोला,
है चूक नहीं तेरी किंचित पर ये कैसा कर डाला?
इतने कोमल नर मुंड ना पांडव के हो सकते हैं?
पांडव पुत्रों के कपाल ऐसे कच्चे हो सकते हैं।
ये कपाल ना पांडव के जो आ जाए यूँ तेरे हाथ,
आसां ना संधान लक्ष्य का ना आये वो तेरे हाथ।
थे दुर्योधन के मन के शंका बादल न यूँ निराधार,
अनुभव जनित तथ्य घटित ना कोई वहम विचार।
दुर्योधन के इस वाक्य से सत्य हुआ ये उद्घाटित,
पांडव पुत्रों का हनन हुआ यही तथ्य था सत्यापित।
ये जान कर अश्वत्थामा उछल पड़ाथा भूपर ऐसे ,
जैसे आन पड़ बिजली उसके हीं मस्तक पर जैसे।
क्षण को पैरों के नीचे की धरती हिलती जान पड़ी
जो समक्ष था आँखों के उड़त उड़तीसी भान पड़ी।
शायद पांडव के जीवन में कुछ क्षण और बचे होंगे,
या उसके हीं कर्मों ने दुर्भाग्य दोष रचे होंगे।
या उसकी प्रज्ञा को घेरे प्रतिशोध की ज्वाला थी,
लक्ष्य भेद ना कर पाया किस्मत में विष प्याला थी।
ऐसी भूल हुई उससे थी क्षण को ना विश्वास हुआ,
लक्ष्य चूक सी लगती थी गलती का एहसास हुआ।
पल को तो हताश हुआ था पर संभला था एक पल में ,
जिसकी आस नहीं थी उसको प्राप्त हुआ था फल में।
जिस कृत्य से धर्म राज ने गुरु द्रोण संहार किया ,
सही हुआ सब जिन्दे हैं ना सरल मृत्यु स्वीकार हुआ ।
दुर्योधन हे मित्र कहें क्या पांडव को था ज्ञात नहीं,
मैं अबतक हीं तो जिंदा था इससे पांडव अज्ञात नहीं।
बड़ धर्म की भाषा कहते नाहक गौरव गाथा कहते,
किस प्रज्ञा से अर्द्ध सत्य को जिह्वा पे धारण करते।
जो गुरु खुद से ज्यादा भरोसा धर्म राज पे करते थे,
पिता तुल्य गुरु द्रोण से कैसे धर्मराज छल रचते थे।
और धृष्टद्युम्न वो पापी कैसा योद्धा पे संहार किया,
पिता द्रोण निःशस्त्र हुए थे और सर पे प्रहार किया?
हे मित्र दुर्योधन इस बात की ना पीड़ाकिंचित मुझको,
पिता युद्ध में योद्धा थे योद्धा की गति मिली उनको।
पर जिस छल से धर्म राज ने गुरु द्रोण संहार किया,
अब भी कहलाते धर्मराज पर दानव सा आचार किया।
मैंने क्या अधर्म किया और पांडव नें क्या धर्म किया,
जो भी किया था धर्मराज ने किंचित पशुवत धर्म किया।
भीष्म पितामह गुरु द्रोण के ऐसे वध करने के बाद,
सो सकते थे पांडव कैसे हो सकते थे क्यों आबाद।
कैसा धर्म विवेचन उनका उल्लेखित वो न्याय विधान,
जो दुष्कर्म रचे जयद्रथ ने पिता कर रहे थे भुगतान।
गर दुष्कृत्य रचाकर कोई खुद को कह पाता हो वीर ,
न्याय विवेचन में निश्चित हीं बाधा पड़ हुई गंभीर।
अब जिस पीड़ाको हृदय लिए अश्वत्थामा चलता है ,
ये देख तुष्टि हो जाएगी वो पांडव में भी फलता है ।
पितृ घात के पितृ ऋण से कुछ तो पीड़ कम होगी ,
धर्म राज से अश्रु नयन से हृदय अग्नि कुछ नम होगी।
अति पीड़ाहोती थी उसको पर मन में हर्षाता था,
हार गया था पांडव से पर दुर्योधन मुस्काता था।
हे अश्वत्थामा मेरे उर को भी कुछ ठंडक आती है ,
टूट गया है तन मन मेरा पर दर्पोंनत्त छाती है।
तुमने जो पुरुषार्थ किया निश्चित गर्वित होता हूँ,
पर जिस कारण तू होता न उस कारण होता हूँ।
तू हँसता तेरे कारण से मेरे निज पर कारण हैं ,
जैसे हर नर भिन्न भिन्न जैसे अक्षर उच्चारण है।
कदा कदा हीं पूण्य भाव किंचित जो मन में आते थे,
सोच पितृ संग अन्याय हुए ना सिंचित हीं हो पाते थे।
जब माता के नेत्र दृष्टि गोचित उर में ईर्षा होती,
तन में मन में तपन घोर अंगारों की वर्षा होती।
बचपन से मैंने पांडव को कभी नहीं भ्राता माना,
शकुनि मामा से अक्सर हीं सहता रहता था ताना।
जिसको हठधर्मी कह कहकर आजीवन अपमान दिया,
उर में भर इर्ष्या की ज्वाला और मन में अभिमान दिया।
जो जीवन भर भीष्म ताप से दग्ध आग को सहता था,
पाप पुण्य की बात भला बालक में कैसे फलता था?
तन मन में लगी हुई थी प्रतिशोध की जो ज्वाला ,
पांडव सारे झुलस गए पीकर मेरे विष की हाला।
ये तथ्य सत्य है दुर्योधन ने अनगिनत अनाचार सहे,
धर्म पूण्य की बात वृथा कैसे उससे धर्माचार फले ?
हाँ पिता रहे आजन्म अंध ना न्याय युक्त फल पाते थे ,
कहने को आतुर सकल रहे पर ना कुछ भी कह पाते थे।
ना कुछ सहना ना कुछ कहना ये कैसी लाचारी थी ,
वो विदुर नीति आड़ आती अक्सर वो विपदा भारी थी।
वो जरासंध जिससे डरकर कान्हा मथुरा रण छोड़चले,
वो कर्ण सम्मुख था नतमस्तक सोचो कैसा वो वीर अहे।
ऐसे वीर से जीवन भर जाति का ज्ञान बताते थे,
ना कर्म क्षत्रिय का करते नाहक अभिमान सजाते थे।
जो जीवन भर हाय हाय जाति से ही पछताता था,
उस कर्ण मित्र के साये में पूण्य कहाँ फल पाता था।
पास एक था कर्ण मित्र भी न्याय नहीं मिल पाता था?
पिता दृश थी विवशता ना सह पाता कह पाता था ।
ऐसों के बीच रहा जो भी उससे क्या धर्म विजय होगा,
जो आग के साए में जीता तो न्याय पूण्य का क्षय होगा।
दुर्बुधि दुर्मुख कहके जिसका सबने उपहास किया ,
अग्न आप्त हो जाए किंचित बस थोड़ाप्रयास किया।
अग्न प्रज्वल्लित तबसे हीं जबसे निजघर पांडव आये,
भीष्म पितामह तात विदुर के प्राणों के बन के साये।
जब बन बेचारे महल पधारे थे सारे वनवासी पांडव ,
अंदेश तब फलित हुआ था आगे होने वाला तांडव।
जभी पिता हो प्रेमासक्त अर्जुन को गले लगाते थे,
मेरे तन में मन मे क्षण अंगार फलित हो जाते थे।
जब न्याय नाम पे मेरे पिता से जैसे पुरा राज लिए ,
वो राज्य के थे अधिकारी पर ना सर पे ताज दिए।
अन्याय हुआ था मेरे तात से डर था वैसा न हो जाए,
विदुर नीति के मुझपे भी किंचित न पड जाए साए।
डर तो था पहले हीं मन में और फलित हो जाता था,
भीम दुष्ट के कुकर्मों से और त्वरित हो जाता था।
अन्याय त्रस्त था तभी भीम को मैंने भीषण तरल दिया ,
मुश्किल से बहला फुसला था महाचंड को गरल दिया।
पर बच निकला भीम भाग्य से तो छल से अघात दिया,
लक्षागृह की रचना की थी फिर भीषण प्रतिघात किया।
बल से ना पा सकता था छल से हीं बेशक काम किया ,
जो मेरे तात का सपना था कबसे बेशक सकाम किया।
दुर्योधन मनमानी करता था अभिमानी माना मैंने ,
पर दूध धुले भी पांडव ना थे सच में हीं पहचाना मैंने।
क्या जीवन रचनेवाला कभी सोच के जीवन रचता है,
कोई पुण्य प्रतापी कोई पाप अगन ले हीं फलता है।
कौरव पांडव सब कटे मरे क्या यही मात्र था प्रयोजन ,
रचने वाले ने क्या सोच के किया युद्ध का आयोजन ?
क्या पांडव सारे धर्मनिष्ठ और हम पापी थे बचपन से ?
सारे कुकर्म फला करते क्या कौरव से लड़कपनसे ?
जिस खेल को खेल खेल में पांडव खेला करते थे ,
आग जलाकर बादल बनकर अग्नि वर्षा करते थे।
हे मित्र कदापि ज्ञात तुम्हे भी माता के हम भी प्यारे।
माता मेरी धर्मनिष्ठ फिर क्यों हम आँखों के तारे ?
धर्म शेष कुछ मुझमे भी जो साथ रहा था मित्र कर्ण ,
पांडव के मामा शल्य कहो क्यों साथ रहे थे दुर्योधन?
अश्वत्थामा मित्र सुनो हे बात तुझे सच बतलाता हूँ ,
चित्त में पुण्य जगे थे किंचित फले नहीं मैं पछताता हूँ।
हे मित्र जरा तुम याद करो जब चित्रसेन से हारा था,
जब अर्जुन का धनुष बाण हीं मेरा बना सहारा था।
तब मेरे भी मन मे भी क्षण को धर्म पूण्य का ज्ञान हुआ,
अज्ञान हुआ था तिरोहित क्षय मेरा भी अभिमान हुआ।
उस दिन मन में निज कुकर्मों का थोड़ एहसास हुआ ,
तज दूँ इस दुनिया को क्षण में क्षणभर को प्रयास हुआ।
आत्म ग्लानि का ताप लिए अब विष हीं पीता रहता हूँ ,
हे अश्वत्थामा ज्ञात नहीं तुमको पर सच है कहता हूँ।
ऐसा ना था बचपन से हीं कोई कसम उठाई थी ,
भीम ढीठ से ना जलता था उसने आग लगाई थी।
मेरे अनुजों संग जाने कैसे कुचक्र रचाता था ,
बालोचित ना क्रीड़ाथी भुजबल से इन्हें डराता था।
प्रिय अनुजों की पीड़ मुझसे यूँ ना देखी जाती थी ,
भीम ढींठ के कटु हास्य वो दर्प से उन्नत छाती थी।
ऐसे हीं ना भीम सेन को मैंने विष का पान दिया ,
उसने मेरे भ्राताओं को किंचित हीं अपमान दिया।
और पार्थ बालक मे भी थी कौन पुण्य की अभिलाषा ,
चित्त में निहित निज स्वार्थ ना कोई धर्म की पिपासा।
डर का चित्त में भाग लिए वो दिनभर कम्पित रहता था ,
बाहर से तो वो शांत दिखा पर भीतर शंकित रहता था।
ये डर हीं तो था उसका जब हम सारे सो जाते थे,
छुप छुपकर संधान लगाता जब तारे खो जाते थे।
छल में कपटी अर्जुन का भी ऐसा कम है नाम नहीं।
गुरु द्रोण का कृपा पात्र बनना था उसका काम वहीं।
मन में उसके क्या था उसके ये दुर्योधन तो जाने ना,
पर इतना भी मूर्ख नहीं चित्त के अंतर पहचाने ना।
हे मित्र कहो ये न्याय कहाँ उस अर्जुन के कारण हीं,
एक्लव्य अंगूठा बलि चढ़ाना कोई अकारण हीं।
सोंचो गुरुवर ने पाप किया क्यों खुद को बदनाम किया ,
जो सूरज जैसा उज्ज्वल हो फिर क्यों ऐसा अंजाम लिया?
ये अर्जुन का था किया धरा उसके मन में था जो संशय,
गुरु ने खुद पे लिया दाग ताकि अर्जुन चित्त रहे अभय।
फिर निज महल में बुला बुला अंधे का बेटा कहती थी ,
जो क्रोध अगन में जला बढ़ उसपे घी वर्षा करती थी।
मैं चिर अग्नि में जला बढ़ाक्या श्यामा को ज्ञान नहीं ,
छोड़ ऐसे भी कोई भाभी करती क्या अपमान कहीं?
श्यामा का जो चिर हरण था वो कारण जग जाहिर है,
मृदु हास्य का खेल नहीं अपमान फलित डग बाहिर है।
वो अंधापन हीं कारण था ना पिता मेरे महाराज बने,
तात अति थे बलशाली फिर भी पांडू अधिराज बने।
दुर्योधन बस नाम नहीं ये दग्ध आग का शोला था ,
वर्षों से सिंचित ज्वाला थी कि अति भयंकर गोला था।
उसी लाचारी को कहकर क्या ज्ञात कराना था उसको ?
तृण जलने को तो ईक्षुक हीं क्यों आग लगाना था उसको?
कि वो चौसर के खेल नही न मात्र खेल के पासे थे,
शकुनि ने अपमान सहे थे एक अवसर के प्यासे थे।
उस अवसर का कारण मैं ना धर्मराज हीं कारण थे ,
सुयोधन को समझे कच्चा जीत लिए मन धारण थे।
कैसे कोई कह सकता है दुर्योधन को व्याभिचारी ,
जुए का व्यसनी धर्मराज चौसर उनकी हीं लाचारी।
जब शकुनि मामा को खुद के बदले मैंने खेलाया था,
खुद हीं पासे चलने को उनको किसने उकसाया था।
ये धर्मराज का व्यसनी मन उनकी बुद्धि पर हावी था,
चौसर खेले में धर्म नहीं उनका बस अहम प्रभावी था।
वरना जैसे कि चौसर में मामा शकुनी का ज्ञान लिया।
वो नहीं कृष्ण को ले आये बस अपना अभिमान लिया।
उसी मान के चलते हीं तो हुआ श्यामा का चिर हरण,
अग्नि मेरी जलने को आतुर उर में बसती रही अगन।
श्यामा का सारा वस्त्र हरण वो द्रोण भीष्म की लाचारी,
चिनगारी कब की सुलग रही थी मात्र आग की तैयारी।
कर्ण मित्र की आंखों ने अब तक जितने अपमान सहे,
प्रथम खेल के स्थल ने जाने कितने अवमान कहे।
उसी भीम की नजरों में जब वो अपमान फला देखा ,
पांडव की नीची नजरों में वो ही प्रतिघात सजा देखा ।
जब चिरहरण में श्यामा ने कातर होकर चीत्कार किया,
ये जान रहा था दुर्योधन है समर शेष स्वीकार किया।
दुर्योधन तो मतवाला था कि ज्ञात रहा विष का हाला,
ये उसको खुद भी मरेगा कि चिरहरण का वो प्याला।
कुछ नही समझने वाला था ज्ञात श्याम थे अविनाशी,
वो हीं श्यामा के रक्षक थे पांचाली हित अभिलाषी।
फिर भी जुए के उसी खेल में मैंने जाल बिछाया था,
उस खेल में मामा ने तरकस से वाण चलाया था।
अंधा कह कर श्यामा ने जो भी मेरा अवमान किया,
वो प्रतिशोध की चिंगारी मेरे उर में अज्ञान दिया।
हम जीत गए थे चौसर में पर युद्ध अभी अवशेष रहा,
जब तक दुर्योधन जीता था वो समर कदापि शेष रहा।
हाँ तुष्ट हुआ था दुर्योधन उस प्रतिशोध की ज्वाला में,
जले भीम , पार्थ, धर्म राज पांचाली विष हाला में।
और जुए में धर्म राज ने खुद ही दाँव लगाया था,
चौसर हेतू पांडव तत्तपर मैंने तो मात्र बुलाया था।
गर किट कोई आ आकर दीपक में जल जाता है,
दोष मात्र कोई किंचित क्या दीपक पे फल पाता है।
दुर्योधन तो मतवाला था राज शक्ति का अभिलाषी,
शक्ति संपूज्य रहा जीवन ना धर्म ज्ञान का विश्वासी ।
भीष्म अति थे बलशाली जो कुछ उन्होंने ज्ञान दिया ,
थे पिता मेरे लाचार बड़ेमजबूरी में सम्मान दिया।
जो एकलव्य से अंगूठे का गुरु द्रोण ने दान लिया ,
जो शक्तिपुंज है पूज्य वही बस ये ही तो प्रमाण दिया।
भीष्म पितामह किंचित जब कोई स्त्री हर लाते हैं ,
ना उन्हें विधर्मी कोई कहता मात्र पुण्य फल पाते हैं।
दुर्योधन भी जाने क्या क्या पाप पुण्य क्या अभिचारी,
जीत गया जो शक्ति पुंज वो मात्र न्याय का अधिकारी।
दुर्योधन ने धर्म मात्र का मर्म यही इतना बस जाना ,
निज बाहू पे जो जीता जिसने निज गौरव पहचाना।
उसके आगे ईश झुके तो नर की क्या औकात भला ?
रजनी चरणों को धोती है आ झुकता प्रभात चला।
इसीलिए तो जीवन पर पांडव संग बस अन्याय किया,
पर धर्म युद्ध में धर्मराज ने भी कौन सा न्याय किया?
धर्मराज हित कृष्ण कन्हैया महावीर पूण्य रक्षक थे,
कर्ण का वध हुआ कैसे पांडव भी धर्म के भक्षक थे?
सब कहते हैं अभिमन्यु का कैसा वो संहार हुआ?
भूरिश्रवा के प्राण हरण में कैसा धर्मा चार हुआ ?
भीष्म तात निज हाथों से गर धनुष नहीं हटाते तो,
भीष्म हरण था असंभव पांडव किंचित पछताते तो।
द्रोण युद्ध में शस्त्र हीन होकर बैठे असहाय भला,
शस्त्रहीन का जीवन लेने में कैसे कोई पूण्य फला?
जिस भाव को मन में रखकर हम सबका संहार किया,
क्यों गलत हुआ जो भाव वोही ले मैंने नर संहार किया।
क्या कान्हा भी बिना दाग के हीं ऐसे रह पाएंगे?
ना अनुचित कोई कर्म फला उंनसे कैसे कह पाएंगे?
पार्थ धर्म के अभिलाषी व पूण्य लाभ के हितकारी,
दुर्योधन तो था हठधर्मी नर अधम पाप का अधिकारी।
न्याय पूण्य के नाम लिये दुर्योधन को हरने धर्म चला
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