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ये शहर भी बड़ी, विचित्र सी जगह है
खोखली यहाँ जमीं, और ना कोई सतह है।
चल रहा हूँ मैं बरबस, मन को यूहीं दबाए
ओठों के दो सतह में, कुछ दर्द को समाए।
कुछ पस ही खड़े है, कुछ कचरे मे गिरे है
बासी से पुलाव को, खाने को कुछ लड़े है।
वहीं थोड़ी दूर पर, बालू के ढेर पर
एक बच्चा है लेटा, शायद है उसका बेटा
वो आधे आँचल को, ओंठो मे है दबाये
मजबूर चल रही है, ममत्व को छुपाये।
व्याकुल मैं हो रहा हूँ, खुद से ही लड़ रहा हूँ
ये एक दो नहीं हैं, करोड़ो से भी बड़े है
इस दर्द को समेटे, मन के ओट मे लपेटे
चुपचाप चल पड़ा हूँ, जरा सहमा और डरा हूँ।
अजय झा **चन्द्रम्**
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