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स्मृति ने साहस कर
समय से किया प्रश्न
क्यों रहते वैरागी तुम
होकर भी मेरे आसन्न।
मेरे भावों के विविध रूप
क्यों तुमको नहीं रिझाते
प्रेम-पीड़ा आत्मीय सुख
क्यों अर्थहीन रह जाते।
प्रतिक्षण सांकेतिक बोलियां
क्यों मैं ही संजोए जाऊं
कुछ धुंधली कुछ प्रबल
सबको सजीव कर लाऊं।
क्यों जीवों के मानस में
अनवरत तुम्हारी राह तकूं
नियति और नियम के आगे
विरही बन बस आह भरूं।
तुम अंतहीन पर भावशून्य
क्या मुझे समझ भी पाओगे
अपने कर्त्तव्य की धुरी परे
क्या मुझे वरण कर पाओगे।
अजय झा **चन्द्रम्**
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