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होलिका की आग में
अहंकार ही तो जलता है
फिर बैर छुपा अंतर में
मानव क्यों खुद को छलता है।


रंग भरे जब ईश्वर ने
तब मूल था खुशहाली आए
पर मानव की करतूतों से
भेद बढ़े, बदहाली छाए।


जोड़ दिया मूढों ने
रंगो को भी धर्मो से
और भूल गए क्यों प्रकृति ने
सतरंगी इन्द्र धनुष बनाए।


श्वेत अश्वेत कभी करते है
कभी परचम लेकर लडतें हैं
रख प्रेम भाव को ताक पर
निमर्म नृशंस हो भिड़ते हैं।


है काल साक्षी इन कर्मो से
बस भय अक्रांत ही फैला है
चाहे फाड़ दो कुछ पन्नों को
पर इतिहास का आँचल मैला है।


फाल्गुन की मधुर बेला में
चलो इक मन्त्र दोहराते है
सब रंगो को लेकर संग
समरसता की होली मनाते हैं



अजय झा **चन्द्रम्**


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