
ढलती रात के पलकों पर आसमान झुका हुआ है
तारें दरख़्तों के शाख़ पर टिमटिमा रहे हैं
हसुए के आकार का आधा-पौना चाँद
सामने वाली छप्पर पर उतर आया है
नीली रात में घुल रहे समूचे ब्रह्मांड का एकाकीपन ,
रात के नीलेपन को और भी गहरा कर रहा है
इस अकेली रात में
मेरे प्रेम के ध्रुव तारे का प्रकाश
उस भोर की दिशा में अनेकों प्रकाश वर्ष
की दूरी तय कर रहा है जिस भोर में तुम्हारे
चेहरे की गुलाबी रोशनी बिखरी हुई है
मेरे शब्द उस उफनती नदी को
पार कर रहे हैं जिस नदी के उस पार
तुम्हारे होंठों की रागिनी बह रही है
मेरी चेतना आकाश की गहराइयों को लाँघ कर
अनंत तक जा रही है
जिस अनंतता पर तुम हो
तुम्हारी प्रतीक्षा
इस रात की क्षणिकता को शाश्वत
कर समय के दायरे से बाहर कर रही है
इस रात की सुबह पृथ्वी के अपने अक्ष पर
घूमने मात्र से नहीं आएगी
ये रात अब तब ढलेगी
जब तुम अपने हाथों से
इस रात की गांठ को खोलोगी
~ आदित्य
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