
सुनो , जा ही रहे हो तो सुनते हुए जाओ ना । मैं हर रोज़ ऐसी ही रहूँ ये तो प्रकृति के नियम केविरूद्ध है , हाँ मगर मैं हर रोज़ तुम्हें ऐसे ही प्यार करूँ तो इसमें मेरी वास्तविकता होगी , मेरी प्रकृतिऔर मेरे दिल के नियम होंगे इसमें बाज़ारू , समसामयिक मिलावटें नहीं होंगी इसमें सिर्फ़ मेरा भावहोगा निःस्वार्थ भाव तुम्हें प्रेम देने का ।
मुझे तुमसे प्रेम करना होगा तो मैं ऐसे ही करूँगी जो मेरा वास्तविक स्वरूप होगा ,
यदि मुझे अपना स्वरूप बदलना पड़ जाए प्रकृति की सबसे पवित्र रचना को प्यार करने के लिए तोफ़िर वो अपराध होगा , दबाव में आकर किया गया झूठ प्रेम प्रदर्शन होगा ।
मैं ग़ुस्से में , दुःख में , सामान्य स्तिथि में
तुम्हें प्यार करना चाहती हूँ , ताकि तुम जानो की परिस्थिति अनुसार भी मेरा प्रेम तुम्हारे लिए कमनहीं होता बस प्रेम बयान करने का ज़रिया बदलना पड़ जाता है ।
सकारात्मक धाराओं में प्रेम के धागे से जुड़े रहना और नकारात्मक धाराओं में प्रेम से जुड़े धागे कोतोड़ देना प्रेम नहीं बल्कि मौक़ा परस्ती है । प्रेम के पेड़ का फल का हक़दार वही है जो पेड़ कोसींचे , आँधी से बचाए , और ज़रूरत पड़ने पर उसे टूटने से भी बचाए ।
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