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क्षणिकाएँ- आदर्श भूषण

adarsh bhushanadarsh bhushan June 16, 2020
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१. स्त्रियों के जितने

पर्यायवाची

तुम व्याकरण की

किताब में ढूँढते रहे;

एक पर्याय

तुम्हारे घर के कोने में

अश्रुत क्रन्दन और 

व्यथित महत्वाकांक्षाओं

के बीच

पड़ा रहा।


२. इस शहर की

परतों से

डर लगता है मुझे;

बाहरी परत पर

रौनक़ का शामियाना

लगा है;

अंदर की गलियों में

मुफ़लिसी की क़बायें हैं

फुटपाथ पर चलता आदमी

पूछता है मुझसे-

“कहाँ से आए हो बाबू!”

“जाना किधर है?"


३. मैं छोटे शहर का आदमी हूँ

अपना घर छोड़कर

जून कमाने

तुम्हारे शहर

तब तक आता रह

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