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मैं ढलती हुई इक सांझ,तू चांद बनकर आ
अनकही सी बातों की,किताब बनकर आ;
सांझ का साथ है लेकिन तुम नहीं हो क्यों?
शाम की चाय की तू मिठास बनकर आ।
अंधेरे उजाले का संगम है ये सांझ प्रिय,
तारा रूपी पुष्पों का उद्यान बनकर आ।
इंतज़ार में तेरे मैं भोर तक सफ़र करती,
सहर सुकूं मिले, तू अज़ान बनकर आ।
दर्द में डूबी धुन, तू हँसी साज़ बनकर आ,
रब से जिसे माँगू, तू अरदास बनकर आ।
रखे कई ख्याल पर जिनको लिखा नहीं,
उन बे-पता ख़तों का तू जवाब बनकर आ।
न गिला शिकवा न बात कोई कहनी है,
बिन कहे समझ ले एहसास बनकर आ।
समंदर के सीने को जैसे लहर सहलाती,
दिल-ए-सोग़वार का इलाज बनकर आ।
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