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सुबह की सुनहरी धूप से संग साँझ तलक वो खिलती है,
कोई जब जैसे जितना चाहे, उसको उतना ही मिलती है।
शब के आते ही आकाश नदी में जब चाँद गोते लगाता है,
आईने की अदालत में ख़ुद को खड़ी कटघरे में रखती है।
सच की कसौटी पे परख़, आप सुकून उसे आ जाता है,
हो जाने दें सब की आवाज़ें ऊँची, खामोशी से सुनती है।
चाँदी से चमकते चेहरे अक्सर तस्वीर धुंधली कर देते हैं,
उजाले चुभते हैं आँखों में, वो स्याह में बेहतर मिलती है।
इश्क़ था,इश्क़ है, इश्क़ रहेगा आबाद इबादत की तरह ही,
कब कहाँ किससे कितना क्यों कैसे भरम में न घुलती है।
उनींदी सी अंखियों के पीछे क्या कुछ छुपाए है ‘मदीहा’
नासमझी की हदों के पार एक हद की झालर बुनती है।
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_फ़क़त‘फरीदा’ © ✍
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