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तुम इतने नासमझ तो नहीं,
कि इतने अरसे बाद भी मुझे समझ न सको,
या समझ चुके हो तुम,
फ़िर भी नासमझी का तमाशा करते हो।
तुम्हें पता है कि ये मगरूरी नामंजूर है मुझको,
लिए फ़िरते हो तुम आँखों में गुरुर-ए-समुन्दर को, किस बात का गुमां है,
किस बात का सुरूर,
किस बात पे यूं नाज़ बेतहाशा करते हो। फ़िर भी नासमझी का तमाशा करते हो।
तुम्हें पता है कि सादगी भाती ही इस दिल को,
झूठी अदा, झूठी वफ़ा कहाँ आती है इस दिल को, क्यूं उम्मीद करते हो मुझ से इश्क़-ए-नुमाइश की,
क्या बार बार इस रूह में तलाशा करते हो,
फिर भी नासमझी का तमाशा करते हो।
-मिराज़ 'अभि'
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