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"स्वप्न-२"



चल आज फिर चलते हैं,


दूर उस पहाड़ी की चोटी पर... 


जहाँ से बहती नदी साफ़ दिखाई देती है 


जिसे देखकर तुमने कहा था,


मैं इस नदी जैसा होना चाहती हूँ 


एकदम शांत, बैरागी और कभी न रुकने वाली 


और अंत में गिरना चाहती हूँ तुम्हारी गोद में,




चल आज फिर चलते हैं,


दूर उस पहाड़ी की चोटी पर...


जहाँ से वो गांव साफ़ दिखाई देता है


जो है एकदम पहाड़ की गोद में


जिसे देखकर तुमने कहा था,


मैं इस गांव जैसा होना चाहती हूँ


और तुम बन जाना ये पहाड़


जो हमेशा मेरे साथ रहें एकदम माँ और बच्चे की तरह,




चल आज फिर चलते हैं,


दूर उस पहाड़ी की चोटी  पर...


जहाँ से डूबता हुआ सूरज साफ दिखाई देता है 


जिसे देखकर तुमने कहा था,


तुम इस सूरज की तरह मत होना 


जो सुबह आये और सांझ में चला जाए 


तुम बनना ये हवा जो हमेशा साथ रहे मेरे,




चल आज फिर चलते हैं, 


दूर उस पहाड़ी की चोटी पर...


तुम आना उन सपनों में जहाँ हम अक्सर मिलते हैं॥


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