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"स्वप्न-२"



चल आज फिर चलते हैं,


दूर उस पहाड़ी की चोटी पर... 


जहाँ से बहती नदी साफ़ दिखाई देती है 


जिसे देखकर तुमने कहा था,


मैं इस नदी जैसा होना चाहती हूँ 


एकदम शांत, बैरागी और कभी न रुकने वाली 


और अंत में गिरना चाहती हूँ तुम्हारी गोद में,




चल आज फिर चलते हैं,


दूर उस पहाड़ी की चोटी पर...


जहाँ से वो गांव साफ़ दिखाई देता है


जो है एकदम पहाड़ की गोद में


जिसे देखकर तुमने कहा था,


मैं इस गांव जैसा होन

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