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"स्वप्न"
कल रात मैंने एक स्वप्न देखा
कुछ अचंभित, कुछ डरावना, और कुछ अचरज से भरा,
दूर कहीं सुनसान रेगिस्तान में कहीं भटक गया हूँ
खोजना रहा हूँ इस रेगिस्तान को पार्ने का रास्ता
मगर जब भी आगे बढ़ता हूँ महसूस करता हूँ
धरती का चलना और फिर पाता हूँ खुद को
वहीँ जहाँ से चलना किया था शुरू ।
कल रात मैंने एक स्वप्न देखा
कुछ अचंभित किन्तु बहुत ही सुखदायक,
पाया खुद को नदी तीरे अकेला और
दूसरी ओर चाँद और चकोर का सुखद संगम
पाना चाहता था उस सुखद आनंद को मैं भी
करना चाहता था पार नदी को मैं
जिस से पा सकू उस का सुख
मगर ज्यों-ज्यों नदी में बढ़ता
पाता खुद को नदी किनारे अकेला ।
कल रात मैंने एक स्वप्न देखा
सत्य के परे एक अलौकिक सुख के अनुभव का ॥
अभिषेक भारती
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