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तुम नकली स्वरों से भी,
कितना,मोह लेती सबको।
मेरी वास्तविक खबरों को भी
न कोई सुनने आता है।
जितनी चपलता तुम्हारे अंदर,
कोई और तनिक भी उसका
हकदार न हो पाता है।
तुम अपने झूठ को भी,
सच साबित कर जाती हो।
मेरा सच खुद को साबित करते-करते,
झूठा ही पड़ जाता है।
तुम्हारे वाह आडंबर से यहाँ,
सारी दुनियादारी प्रभावित है।
में जितना भी तम हटा रहा,
पर यहाँ तम में रहने की आदत है।
बो तुम्हारे क्षणिक आकर्षक धन को,
खुद की अक्षय निधि मन रहे।
में यहाँ कितना भी पर्दा हटा लूँ ,
उनसे सावन की हरियाली का,
पर इस सबको बो फरेब मान रहे।
तुम अपनी जिन दो तिलस्मी आँखों से,
सारे जग को फ़ांस रखा।
मेरे जैसे हजारों भी आ जाएँ,
पर उनको कोई बचा न सका।
उनका हाल अब उन्हें मुबारक,
जो यहाँ तुम्हारी माया से मोहित हैं।
जब तक रहेंगे इस कलम में प्राण
यहाँ सच ही शोभित है।
तुम्हारे नकली स्वरों में,
में कभी न फस पाउँगा।
तुम कितने भी जतन कर लो,
तुमसे न हार पाउँगा।।
~अभय दीक्षित
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