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"आवरण"
वो टूट रही थी अंदर से,
वक़्त दर वक़्त, ख्याल दर ख्याल।
सुलग रहे थे सपने,
बुझ रहे थे सवाल।।
सवाल, जो मर चुके थे,
ज़हन की दहलीज पर।
डर था, कोई उठा देगा सवाल,
उसकी तमीज़ पर ।।
बस यही सब सोचकर,
वो सोयी ना थी।
टूट रही थी, सिसक रही थी,
मगर रोयी ना थी ।।
बड़ा अजीब है ना,
जाने कैसे?
दो आँखों में सब कुछ छुपा लेती है।
ये औरत है...
जले पर भी आवरण लगा लेती है ।।
© Nitin Kr Harit
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