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"आवरण"


वो टूट रही थी अंदर से,

वक़्त दर वक़्त, ख्याल दर ख्याल।

सुलग रहे थे सपने,

बुझ रहे थे सवाल।।


सवाल, जो मर चुके थे,

ज़हन की दहलीज पर।

डर था, कोई उठा देगा सवाल,

उसकी तमीज़ पर ।।


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